लाजो
वैसे तो उसका नाम लाजवंती था, मगर घर-परिवार वाले प्यार से लाजो कहकर पुकारते ।
“लज्जो पानी की बटलोई निसरनी के पास रख दे और ला, वो पीतल का लोटा मुझे दे”,!! चूल्हे पे रोटी सेंकती मां बोली” …“और बेटा बाहर झांक के देख, बाउजी आये की नहीं” ?
घर के कामों मे हाथ बंटाना लाजो की रोज़मर्रा, मगर बस एक दो दिन की और बात, फिर लाजो की बिदाई…कारण..“उसका गौना जो होना है” !! बंगाल के नज़दीक, बिहार प्रांत के किसी दूर-दराज़ गांव की लाजो का ब्याह तो यही कोई 9-10 साल की उम्र मे ही हो गया था, मगर अब 4-5 साल बाद वो ससुराल जाने वाली है । औरों की तरह लाजो ने भी कुछ सुनहरे सपने संजो रखे, एक बेहतर ज़िन्दगी और एक बेहतर कल के ।
“अम्मा …नद्दी से कपड़े धोकर आती हूं” ..लाजो ने गठरी उठाई और चली । “बेटा… जल्दी लौटना”…रसोई से मां बोली ।
नदी पर अभी लाजो ने कपड़े धोना शुरू ही करा था की गांव मे भगदड़ मची…“अंग्रेज आ रहे हैं..अंग्रेज आ रहे हैं” । अंग्रेजों का उन दिनों बड़ा खौफ था । जब अंग्रेज निकलते तो लोग घरों के दरवाजे बंद कर लेते । लाजो घबराई…अब क्या करे ?? इतना भी समय नहीं की भाग कर घर जा सके । मगर उसने हिम्मत से काम लिया । तुरंत गहने उतारे, गठरी से मां की साड़ी निकाली, उसे अपने वक्षस्थल और पेट पर लपेट कर सब कुछ समतल बनाया । उपर से पिताजी का कुर्ता डाला, फिर पजामा पहना । सर पर पिताजी का साफा बांधा । बालों की एक लट से मूंछ बनाई । बाकी चेहरा को साफे से ढका । गहनों को वहीं झाड़ियों मे छुपा, वो घर को चली । अब अंग्रेज सड़क पर और लाजो किनारे-किनारे । एक अफसर की निगाह उस पर गई भी मगर वो कुछ समझ ना सका और लाजो सुरक्षित घर पहुंची । सभी ने राहत की सांस ली ।
कल लाजो की बिदाई। रात करवटें बदलते बदलते, जाग कर ही गुज़री । मन को विचलित करते अनगिनत सवाल !! किन्ही अज्ञात आशंकाओं से तेजी से धड़कता दिल !! कैसी होगी नयी जगह ?? । सब ठीक-ठीक रहेगा ना ?? । मगर कहीं किसी कोने मे एक नई शुरुआत की छोटी सी आशा भी ।
अगली सुबह, भारी हृदय और आंसुओ से लदी आंखों से, लाजो मां-बाप का घर छोड़कर चली । पता नहीं अब कब मिलना हो ?? । कब लौटना हो ? । अपनों से बिछड़ने का गम, मां का प्यार, बाप का दुलार । भारी आंखों से कभी वो उन खेतों को देखती, तो कभी गांव की पगडंडियों को । आंखों के सामने बार-बार आ घूमते बचपन की सखियों के चेहरे । इन्ही खेतों, गलियों मे वो उन सहेलियों के साथ खेलती थी । राह से गुज़रते मवेशी उसकी आंखों के बोझ को और बढ़ा देते । हर शाम घर लौटकर आये मवेशियों को वो प्यार से नहलाती-धुलाती और फिर चारा देती ।
दूर, बहुत दूर कहीं, उसका ससुराल । आज से कोई पोने-दो-सो (175 ) साल पुराना भारत । आवागमन के बहुत कम साधन । जिन बेचारी लड़कियों के मायके दूर वो तो अपने जीवनकाल मे बहुत कम बार ही मां-बाप के घर दोबारा जा पाती थीं ।
लम्बे सफर के बाद, लाजो ससुराल पहुंची । सास-ससुर भी ठीक थे । पति रामसेवक भला आदमी था, लाजो का ध्यान रखता । रोज सुबह काम पर निकल जाता । शाम जब घर लौटता तो दोनों साथ एक ही थाली मे भोजन करते । गांव मे रामदत्त का छोरा बहुत अच्छी स्केच बनाता था । एक रोज़ दोनों ने पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर तस्वीर बनवाई । कमाल का कलाकार था वो छोरा, दोनों की हूबहू तस्वीर बना डाली ।
लाजो को आये करीब एक महीना होने को आया । सब कुछ ठीक ही चल रहा था । लाजो भी अपने नई जिन्दगी को लेकर कुछ-कुछ आश्वस्त हो चली । फिर एक शाम रामसेवक नहीं लौटा । बाहर लगातार तेज बारिश हो रही थी । घरवालों ने सोचा, शायद बारिश के चलते कहीं रुक गया होगा ?? । मगर वो अगले दिन भी नहीं लौटा । अब सभी चिंतित । काफी खोज-खबर, ढुंढाई हुई, मगर रामसेवक का कहीं पता नहीं चला । दिन गुज़रते गये और चिंताएं बढ़ती गयीं ।
रामसेवक को गये अब एक महीना हो चला । लाजो की मुसीबतें बढ़ती गयीं । पहले लोगों मे खुसपुसाहट, फिर जितने मुंह उतनी बातें । और कमी थी तो एक दिन लाजो को पता चला की वो पेट से है । इधर पति घर पर नहीं और उधर ससुराल वालों ने मानने से इंकार कर दिया—“बच्चा मायके से ही लाई है” । लाजो को दिन भर ताने सुनने पड़ते । गांव भर मे तरह-तरह की चर्चा । कोई कुलच्छनी, चरित्रहीन, कहता तो किसी के हिसाब से उसके पैर ही ससुराल मे गलत पड़े, आते ही पति गायब हो गया ।
सुख, शांति, नींद सभी लाजो के बैरी हो चले । समय गुज़रा और अलग-थलग, एकांत मे जीवन गुजार रही लाजो ने एक लड़के को जन्म दिया । विधी ने लाजो को कुछ राहत दी । बच्चे की शक्ल बाप रामसेवक से मिलती थी । मगर ससुराल के ताने फिर भी मिलते रहे । लाजो को फिर भी एक हल्की सी उम्मीद की शायद आगे चलकर सब कुछ ठीक हो जाये !!
किसी तरह दो साल गुज़रे । दूसरों की दया पर निर्भर, बोझिल जीवन, भविष्य की अनिश्चितता, और उस पर दिन-रात मानसिक प्रताड़ना झेल रही लाजो ने हालात मे कुछ भी ना बदलता देख निर्णय करा की वो अब और घुट-घुट कर नहीं जियेगी, और मां-बाप के घर लौट जायेगी । फिर एक रात अपना थोड़ा-बहुत ज़रूरी समान/गहना बांध, चुपचाप, बिना किसी को बताए, बच्चे को साथ ले वो ससुराल से निकल पड़ी ।
किसी छोटे से गांव की, अनुभवहीन, 16-17 साल की लाजो, अब इतनी बड़ी दुनिया मे एक छोटे से बच्चे के साथ नितांत अकेली । राह मे लाजो की मुलाकात, एक व्यक्ति से हुई । लाजो ने उससे घर तक पहुंचाने मे मदद मांगी । उस व्यक्ति ने लाजो को मदद का वादा तो किया मगर एक शर्त रखी—”लाजो तुझे कुछ वक्त के लिए काम करना पड़ेगा, उसके बाद मे तुझे तेरे मां-बाप के पास छोड़ आऊंगा” । लाजो ने भी सोचा—“हाथ मे दो पैसे होंगे तो मेरी भी कुछ इज्जत होगी, और फिर मुझे बच्चे के भविष्य के लिए भी तो कुछ सोचना है”,…कुछ करना है !! । लाजो ने उसका प्रस्ताव मान लिया ।
अगले कुछ दिन सफर मे गुज़रे । सफर का अंतिम पड़ाव नाव से तय हुआ, और नाव आखिर किनारे लगी । पता चला की कोई बड़ा शहर है, किसी ने बताया ‘कलकत्ता’ नाम है । कुछ महीने लाजो ने वहां मज़दूरी की, अफसर लोग कमर-तोड़ काम लेते । कुछ दिन बाद लाजो ने फिर उस आदमी से घर लौटने की बात चलाई, मगर उसका वही पहले वाला जबाब—-“कुछ वक्त काम कर ले फिर छोड़ आउंगा” ।
फिर एक दिन उस आदमी ने कहा—“हम कल सुबह कलकत्ता छोड़ने वाले हैं, नयी जगह चलना है, और अगला सफर जहाज से तय होगा” ।
अगली सुबह लाजो जहाज पर सवार हुई । एक बड़े से जहाज पर अपने सामान सहित बहुत सारे स्त्री-पुरुष । वहां एक अजीब सी चुप्पी । खामोश लाजो ने अपना बच्चा और सामान संभाला । जहाज चलने को हुआ । लाजो ने जहाज पर एक नजर मारी और उसका दिल धक्क सा रह गया—“उसे उसके मां-बाप तक पहुंचाने वाला, और अब तक उसके साथ रहने वाला वो व्यक्ति जहाज पर कहीं नहीं”?? !! … “वो कहां जा रही है ??….आगे क्या होगा ??.. ऐसे हज़ारों सवाल उसके मन को विचलित कर रहे । किसी अनजान भय से उसका दिल बैठा जा रहा, मगर उसने अपना सारा साहस बटोरा ।
दिन गुजरते गये, तारीख बदलती रही । एक बार जो शुरू हुआ तो वो समुद्री सफर जारी रहा । उन जहाजियों ने बहुत कुछ देखा । किसी गर्भवती महिला ने जहाज पर बच्चे को जन्म दिया तो किसी दमे के मरीज़ ने उसी जहाज पर दम तोड़ दिया । उस मॄत शरीर को उसी सागर को अर्पित कर जहाज आगे बढ़ गया । मौसम के सभी खतरनाक तेवर—बारिश, आंधी, तूफान को झेलता कोई तीन, साढ़े-तीन महीने मे वो सफर मुकम्मल हुआ और जहाज वेस्टइंडीज के किसी टापू के तट पर आकर रुका ।
अपनी क्षमता से कहीं अधिक शारीरिक और मानसिक कष्ट झेल चुकी लाजो और ना सह सकी और आते ही बीमार पड़ गयी । कुछ भारतीय जो वहां पहले लाये गये थे, उन्हीं मे से एक भले आदमी रामचरन ने कुछ जानकार लोगों से मिलकर लाजो का ईलाज करवाया, उसकी तीमारदारी करी, और बच्चे को संभाला । जड़ी-बूटियों ने धीरे-धीरे असर दिखाया और अगले दो-तीन हफ्तों मे लाजो काफी बेहतर हो गयी ।
लाजो ने काम-काज शुरू करा । वो दिन-रात काम करके एक-एक पैसा जोड़ती । हर थोड़े दिनों मे आसपास कहीं उसकी बदली हो जाती । नई जगह, नये लोगों से मेलजोल होता । बीच-बीच मे रामचरन उससे आकर मिल जाता । एक अनजान देश मे उसे रामचरन से बहुत हिम्मत थी । रामचरन उसकी हर मुसीबत मे मसीहा बनकर खड़ा हो जाता ।
लाजो को आये अब एक साल हो गया । इस बार ओवरसियर ने जहां लाजो को भेजा वहां एक ‘शुगर-मिल’ थी । लाजो को पास ही के गन्ने के खेतों मे काम करना था । खेतों के आस-पास ही मिल मे काम करने वाले मज़दूरों के कच्चे मकान थे । उन्ही मकानों मे एक मकान मे एक भली महिला रहती थी । उम्र मे थोड़ी बड़ी थी तो लोग उसे प्यार से बड़की कहकर बुलाते । बड़की निश्चल प्रेम की मूर्ति थी । सबका बहुत ध्यान रखती । लाजो की भी बड़की से जान पहचान हो गयी । लाजो को काम से बिल्कुल भी फुर्सत नहीं मिलती, मगर रोज़ काम पर जाते और वापस लौटते हुए बड़की से दुआ-सलाम हो जाती ।
फिर एक रोज़ काम पर जाती लाजो दो मिनिट रुक कर बड़की से बोली, “आज पहली बार साहब आधे दिन की छुट्टी देगा”, बड़की ने खुश होकर कहा…“ये तो बहुत अच्छा है, काम से लौटकर घर आना तेरी लिए कुछ अच्छा सा बनाकर रखूंगी” ।
दोपहर मे काम से निपट कर लाजो, बड़की के घर पहुंची । बड़की ने बहुत ही स्वादिष्ट दाल पुरी और बहुत सारा सामान बना कर रखा था । दोनों ने साथ खाना खाया । फिर लाजो ने बड़की को अपनी पूरी कहानी सुनाई, और कपड़े के उस पुराने झोले से निकलकर अपने पति रामसेवक और खुद की वो पुरानी तस्वीर दिखाई ।
बड़की बहुत देर तक वो तस्वीर देखती रही, फिर बोली—“लाजो ये तेरा आदमी है ??…ये तो पिछले साल यहीं था !! ज़्यादा तो मालूम नहीं लेकिन कहीं से तबादला होकर आया था, !! अपने काम मे बहुत व्यस्त रहता था । उसका किसी से कोई खास मिलना-जुलना नहीं था, इसीलिए किसी को उसके बारे मे कोई खास मालूमात नहीं थी । बोलते बोलते बड़की का गला भर आया…वो आगे बोली.. …अभी उसे आये हुए कुछ ही दिन हुए थे, फिर एक रात किसी ज़हरीला सांप या बिच्छू ने उसे काट लिया । आसपास के लोगों ने बहुत भागदौड़ की । उस रात जो कुछ कर सकते थे सब करा, लेकिन सारी मेहनत व्यर्थ गयी, और सुबह होने से पहले ही उसने दम तोड़ दिया ।
लाजो ये सुनकर स्तब्ध रह गयी । उसके हाथ-पैर शिथिल हो गये । जुबान को जैसे लकवा मार गया हो । आंखो से अश्कों की एक मोटी धारा फूट पड़ी । दोनों स्त्रियां बहुत देर तक सिसकती रहीं । लाजो बड़की की गोद मे सर रख कर देर तक पड़ी रही । बड़की बार बार उसके आंसू पोछती, तरह तरह से उसे सांत्वना देती, दिलासा देती, हिम्मत देती ।
बहुत देर बाद आंसुओ से भरी आंखे उठाकर लाजो ने बड़की की और देखा । बड़की की ममतामयी आंखों से लाजो के कानों मे एक आवाज़ आयी :
बीते हुए कल की ख़ातिर तू ।
आनेवाला कल मत खोना ।।
जाने कौन कहाँ से आकर ।
राहें तेरी फिर से सँवारे ।।
एक अँधेरा, लाख सितारे ।
एक निराशा, लाख सहारे ।।
लाजो के सर पर हाथ फेरती बड़की ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा “ बेटा…ये अंधेरी रात बस छंटने को ही है, सवेरा ज्यादा दूर नही,… रामचरन एक बहुत अच्छा लड़का है” ।
——————-××———
लाजो फिर हिन्दुस्तान नहीं लौटी । मां-बाप, भाई-बहन, सखी-सहेलियों जो छूटे तो दोबारा मिलना नहीं हो सका । लाजो की कहानी उन हज़ारों भारतीयों की है जो अठारहवीं सदी में दासप्रथा (स्लेव ट्रेड) की समाप्ति पर अनुबंधित मज़दूर ( करारबद्ध श्रमिक–इंडेंचरर्ड लेबर ) के रूप मे वेस्टइंडीज, मारिशस, फिजी आदि सुदूर देशों को ले जाये गये । कुछ बेहतर स्थितियों/रोज़गार के लिए स्वेच्छा से, कुछ उस वक्त के आकाल से परेशान होकर, तो कुछ कथित बलात, और प्रलोभन से ले जाये गये । कुछ बेचारे दलालों की कुटिल चालों के शिकार होकर वहां पहुंचे । ब्रितानी सरकार से अनुबंध समाप्ति पर कुछ लोग वापस भी लौटे । लाजो की कहानी उस साहसिक महिला की है जिसने विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए अपने आत्मसम्मान और एक बेहतर ज़िन्दगी के लिए पग पग पर संघर्ष करा और अंततः उसे हासिल भी किया ।
( ये एक काल्पनिक कथा है, किसी भी जीवित या मॄत व्यक्ति अथवा घटना से, इसका कोई संबंध नहीं है )
लेखक- डॉ. अजय शर्मा