
प्रवेश से पहले पढ़ाई: बाल अधिकारों का उल्लंघन

लेखक- अनिल मालवीय, शिक्षाविद् भोपाल
हमारे देश में शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा मिला है, जिसका अर्थ है कि हर बच्चा शिक्षा पाने का हक़दार है—बिना किसी शर्त के। लेकिन हाल के वर्षों में यह देखने को मिला है कि कई स्कूल कक्षा प्रथम में दाखिले के लिए बच्चों से ऐसे सवाल पूछते हैं जैसे, KG 2 के सवाल, फ्रूट्स नेम, फ्लावर नेम, एनिमल नेम, वेजिटेबल नेम, “अ, आ” आता है या नहीं, 1 से 20 तक गिनती आती है या नहीं, या फिर ABCD पहचान सकते हैं या नहीं। क्या यह प्रक्रिया उचित है?
बचपन का बोझ
एक पांच या छह साल का बच्चा, जो अभी खेल-कूद और जिज्ञासा की दुनिया में है, उस पर पहले से “स्कूल के योग्य” होने का बोझ डालना एक तरह से उसकी प्राकृतिक वृद्धि को बाधित करना है। यह परिपाटी बाल मनोविज्ञान के भी विरुद्ध है।
नियमों की अवहेलना
शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE Act) साफ कहता है कि दाखिले के लिए किसी भी तरह की परीक्षा या साक्षात्कार (Interview) नहीं लिया जाना चाहिए, खासकर कक्षा पहली जैसी प्रारंभिक कक्षाओं में। यदि कोई स्कूल ऐसा करता है तो वह कानून का उल्लंघन कर रहा है।
शिक्षा का उद्देश्य हर बच्चे को उसकी जिज्ञासा और समझ के स्तर पर अवसर देना है, न कि पहले से पढ़ा-लिखा होना उसकी शर्त बनाना। इसलिए हमें एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की ओर बढ़ना चाहिए जो समावेशी हो, जिज्ञासा को बढ़ावा दे और बचपन को बोझ नहीं बनाए।
क्या प्रथम कक्षा में प्रवेश के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है?
शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना है, न कि पहले से ज्ञानी की परीक्षा लेना। किंतु आजकल कई स्कूलों में कक्षा प्रथम में प्रवेश से पहले बच्चों से पढ़ने-लिखने, गिनती जानने, या अंग्रेजी बोलने की अपेक्षा की जाती है। यह प्रवृत्ति शिक्षा की मूल भावना के विरुद्ध है।
यह कड़वे अनुभव का सामना मुझे करना पड़ा मेरा 7 वर्षीय बेटा भोपाल के नामी-गिरामी स्कूल में दो बार इंटरव्यू एवं लिखित प्रवेश परीक्षा में कुछ नहीं आता कहकर एडमिशन से मना कर दिया गया।
छह वर्ष की उम्र में बच्चा प्राकृतिक रूप से सीखने के लिए तैयार होता है। इस समय उसे शिक्षा का वातावरण देना ज़रूरी होता है, न कि पहले से उसे किसी ‘प्रतियोगिता’ के लिए तैयार करना। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) भी स्पष्ट रूप से कहता है कि 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए। इस कानून के अनुसार किसी भी स्कूल को प्रवेश के समय परीक्षा या इंटरव्यू के आधार पर बच्चे को चुनने या अस्वीकार करने का अधिकार नहीं है।
अभिभावकों में भी यह भ्रम है कि पहले से थोड़ा पढ़ा-लिखा बच्चा स्कूल में आगे रहेगा। इसी कारण वे बच्चों को प्ले स्कूल या कोचिंग में भेजने लगे हैं, जिससे उन पर मानसिक दबाव बढ़ता है। इससे उनका बचपन छिन जाता है और वे सीखने के बजाय ‘अंक प्राप्त करने की दौड़’ में फँस जाते हैं।
स्कूलों को चाहिए कि वे बच्चों की उम्र, जिज्ञासा और सीखने की क्षमता के आधार पर पाठ्यक्रम तैयार करें। सीखने की शुरुआत कहानी, चित्र, खेल और संवाद से होनी चाहिए, न कि रटने और लिखने से।
यहां यह कहना उचित होगा कि कक्षा प्रथम में प्रवेश के लिए पढ़ा-लिखा होना न तो जरूरी है, न ही वांछनीय। जरूरी है तो सिर्फ यह कि बच्चे को सीखने का अवसर मिले—बिना डर और दबाव के।