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इछावर (मध्यप्रदेश) के लिए यादों के झरोखों से… वेस्टइंडीज़ से डॉ अजय शर्मा

कुछ खास

यादों के झरोखों से…

वेस्टइंडीज़ से डॉ अजय शर्मा

70-80 का दशक, गर्मियों के दिन । ढलती धूप। समय कोई शाम के 4 बजे । पीं….पीपीपी….पीं…….पीपिपीपी……………………….., घोड़ा-नक्कास, हमीदिया रोड भोपाल के बसस्टेंड, पर लगातार हार्न देती, लाल रंग की वो *‘भोपाल-इछावर’* रोडवेज़ की बस । उधर कंडक्टर यात्रियों को भरने मे व्यस्त और इधर झल्लाते हुए ड्राइवर शकूर मियां….”अरे दरवाजा बंद करो यार…पहले ही लेट हो चुके हैं” !!! बस भी ठसाठस फुल । कुछ सीट पर तो दो दो सवारी । कहीं किसी का झोला, तो कहीं किसी की गठरी । बस मे लिखे कई ज्ञानवर्धक स्लोगन..’बच्चे दो ही अच्छे’ । ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’। ‘अपने सामान की स्वयं रक्षा करें’ । कई स्थानों पर बड़े -बड़े अश्ररों मे लिखा *“धूम्रपान निषेध”,* । बाबजूद इसके, कोई ना कोई दद्दा, बीड़ी सुलगा ही बैठते और फिर भीड़ उन पर टूट पड़ती…”जल्दी बुझा”.. और वो बिचारे हड़बड़ा कर फौरन ही अधजली बीड़ी खिड़की से बाहर फेंकते । कहीं किसी ग्रामीण के ट्रांजिस्टर पे मोहम्मद रफी का गाना बज रहा, तो कहीं कोई शहरी बाबू अपने दोनों हाथों से फैलाकर समाचारपत्र बांच रहा । पीछे की सीट पर कुछ नवयुवक मूंगफली का आनन्द ले रहे तो आगे कहीं कोई मां अपने रोते बच्चे को चुप कराने का प्रयास कर रही । सीहोर के खूबसूरत बांस के पेड़ों की झुरमुट से गुजर, कोनाझिर की मज़ार पर चंद मिनिटो का स्टाप और फिर, इछावर के अस्पताल के सामने मुक्कमल होता, कोई तीन-साढ़े-तीन घंटे का सफर।

सीहोर जिले की तहसील ‘इछावर नगर’, मेरी जन्म स्थली है । स्कूल की गर्मी और सर्दी की छुट्टियां इछावर मे ही गुज़रती ।

सुबह-सुबह किसी ने दरवाज़ा छटखटाया। मेने खोला…’शाबजी नमश्ते…। देखा तो सामने छोटे से कद का ‘नेपाली’ चौकीदार था। ‘नाइट-ड्युटी’ खत्म कर तन्खाह लेने आया था । गर्मी, सर्दी, बरसात । मौसम चाहे कोई भी क्यों ना हो, लेकिन टार्च मारता, सीटी बजाता, डंडे ठोकता, रात भर उसकी ड्युटी बराबर जारी रहती । उस ज़माने मे पुलिस के बाद आम जनता के लिए नेपाली ही एकमात्र सुलभ, रात्रिकालीन सुरक्षाकर्मी थे । यह भी सर्वविदित तथ्य है की 1947 से, अपने शौर्य और पराक्रम के लिए मशहूर, ‘गोरखा रेजिमेंट’ भारतीय फौज का अभिन्न अंग रही ।

आज है *‘हाट’* वाला दिन । इछावर शहर पहुंचने वाले सारे मार्गों पर ट्रेक्टर-ट्राली, बैल-गाडी, और प्राइवेट बसों की भरमार । दूर-दूर तक फैला बाज़ार । तिल धरने तक की जगह नहीं । किसी दुकान से सुनाई देता पीतल-ताम्बे के बर्तनों पर मशीन से ‘गुदाई’ का शोर तो कहीं कानों को फाड़ती ‘छुरी-चाकू’ पर लग रही तेज़ धार । कोई बोरे पर लगाकर बैठा शरबती गेहूं का ‘पहाड़’, तो किसी के थैले पर ‘गुड़ के ढ़ेर’, दर्जनों किस्म के गुड़ । उसी भीड़ मे फेरी लगाता…’चकरी वाला’, ‘गुब्बारे वाला’, ‘नींबू-पानी वाला’, और साइकिल पर ढपली बजाता ‘बर्फ के गोले वाला’ ।

घर से कुछ दूर, सेठ गोपाल दासजी की हवेली के बगल मे ही था एक विशाल मन्दिर । रोज़ शाम को वहां आरती होती । आरती मे ‘काम्पटीशन’ इस बात का कि लकड़ी के हत्थे के साथ घंटाल को कौन कितनी देर तक ?? और कितना ज़ोर से बजा सकता है !! और एक महत्वपूर्ण बात..… मन्दिर का प्रसाद भी बहुत स्वादिष्ट होता था । कुल मिलाकर ‘भक्ति रस’ ‘वीर रस’ और ‘रसायन रस’ तीनों ही रसों एक साथ अनुभव और आनन्द।

तहसील कार्यालय के सामने, नीम की ठंडी छांव तले, एक दुकान नुमा कमरे मे *‘कैरम’* की बिसात बिछती । जिस कौशल से ‘कैरम बोर्ड’ पर अंगुलियां चलती थी, लगता है कोई इनामी प्रतियोगिता होती तो निश्चित ही अपना नाम रोशन करते । मगर एक समस्या भी थी । घर वालों को हमारा वहां जाना बिलकुल पसंद नहीं था । इसलिए हमेशा चौकस रहना पड़ता । खतरे का आभास होने पर कई बार वहां से भागना पड़ा ।

उन दिनों नगर मे पेयजल के स्त्रोत, शहर भर मे फैले *’कुऐ’* हुआ करते थे । कुछ सार्वजनिक, तो कुछ व्यक्तिगत । कुछ सतही, तो कुछ गहरे । अभी एक कुऐ का मुआयना कर ही रहा था की एक महिला की आवाज ने ध्यान खींचा… ‘राम राम’… ‘बाउजी थोड़ा पानी उलीच दोगे क्या’ ??? । सारा साजो-सामान वहां मौजूद… ‘बालटी’, ‘बटलोई’ ‘गागर’, मज़बूत ‘रस्सी’ । कुऐं से कुछ ऊपर लोहे की ‘घिरनी और कुऐं के मुंह पर चारों और बिछे मजबूत लकड़ी के ‘ढूंढ’ या.,पत्थर के बड़े-बड़े ‘सिल्ले’ जिन पर रस्सी के लगातार चलने से बने गहरे निशान । इन्ही निशानों ने जीवन के बहुत बड़े आदर्श को जन्म दिया…
“करत करत अभ्यास से, जड़मति होत सुजान..
रसरी आवत-जात, ते सिल पर पड़त निशान” ।
न्यूनतम शब्दों मे सरलतम भावार्थ…”सतत अभ्यास और प्रयास ही, सफलता की कुंजी है” ।
शहर मे पानी की सप्लाई ‘बैंगी’ द्वारा होती थी । एक लम्बे बांस के दोनों छोर पर रस्सी से पानी से भरे दो बड़े पीपे लटकाये जाते, और एक आदमी उसे अपने कंधे पर लटकाकर जगह-जगह पानी का वितरण करता ।

घर से कुछ दूर एक गली मे, एक चच्चा की ‘पतंग’ की दुकान हुआ करती थी । इधर शाम हुई और छत पर रौनक शुरू । मंजे सुते, जोते बंधे और ‘चरखी’ बाहर निकली । समीकरण ऐसा की हर छत पर पतंग उड़ाने वाले एक विशेषज्ञ और एक दूसरा ‘गिर्री’ थामे, बगल मे खड़ा, उनका असिस्टेंट । कुछ ही मिनटों मे सैकड़ों रंग-बिरंगी पतंगों से आसमान ढ़क जाता । कमाल तो इस बात का कि हर पतंग एक्सपर्ट को ‘अपने’ और ‘गैर’ की पहचान,…’किस पतंग को बचाना है’ !! और ‘किस पतंग को काटना है’ ? । छतों पर बढ़ती चहल-पहल और उधर ऊपर आसमान मे, पतंगों की घमासान । ‘पेच पे पेच लड़े’ …कोई पतंग ढील पर, तो कोई दायें-बाये लहराई । देखते-देखते किसी की पतंग कटी और बर्मा चौक मे गिरी । पतंग लूटने हुजूम लपका । पतंग तो छिन्न-भिन्न हो गयी और दोनों ही पार्टी अफसोस जताती खाली हाथ अपने खेमे मे लौट गयीं ।

ठ॔ड का मामला ज़रा अलग था । किचवाहट वाला काम होता था भरी सुबह उठकर, ठिठुरती सर्दी मे मे दूध लेने जाना । ठंड तो खैर शाम को भी होती थी, मगर दूधवाले के घर के पास ही के होटल की गर्मा-गर्म चाय की चुस्कियों से बहुत राहत मिलती ।

इछावर के पास ही एक गांव है *‘भांउखेड़ी’ ।* कुछ 35-40 साल पहले, वहां की मावाबाटी काफी मशहूर हुई । मेरे अनुज ने तारीफ करते हुए, वहां चलने का प्रस्ताव रखा । बस फिर क्या था, स्कूटर निकाली और टेढ़े-मेढे, धूल से भरे, सकरे रास्तों से होते हुए एक घर के सामने रुके । एक महिला ने दरवाजा खोला । ‘कच्चा सा मकान’,… ‘अंदर जाने का छोटा सा किवाड़’। महिला ने तुरंत पास खड़ी एक खाट डाली, और अतिथि सत्कार के साथ स्वागत करती हुई बोली..’पधारो’ । अनुज की और मुखातिब हो उसने प्रश्न किया…’केई बाबू साब भोपाल से आया नी’ ?। अनुज ने हां मे सर हिलाया और फिर वो अंदर चली गयी । करीब बीस मिनट बाद वो बाहर निकली । हाथ मे दो बढ़े दोने, जिसमे एकदम ताजा, गर्म, लगभग दो गुलाबजामुन के बराबर, मेवों की ख़ुशबू से तरबतर, लज्जतदार मावाबाटी …रंगरूप, और स्वाद दोनों मे बेजोड़ । मै तारीफ करे बगैर ना रह सका । वो बोली… ‘बाबूजी’…’अपनी मावाबाटी इन्दौर-देवास तक जाये है’ !! वैसा लाज़वाब स्वाद फिर दोबारा कही देखने को नहीं मिला ।

70 के दशक मे, यही कोई 10-12 साल का रहा हूंगा । परिवार के एक और परम श्रद्धेय बुज़ुर्ग का भी इछावर मे निवास था । इछावर के हर दौरे मे उनको दंडवत करने जाना और कम से कम एक बार उनके यहां ‘जीमना’ अनिवार्य था । उनके घर के पिछले हिस्से मे एक बड़ा बगीचा था । एक छोटा सा दरवाज़ा उस बगीचे मे खुलता था । बगीचे मे प्रवेश करते ही…‘भौरों की गुन-गुन’…’चारों और दौड़ती तितलियां’… ‘फलों से लदे अनेकोनेक पेड़’ और ’हवा मे तैरती पके आमों की खुशबू’ । वहां भोजन के उपरांत रसीले आमों की एक टोकरी परोसी जाती थी । बाद मे मुझे पता चला की ‘लंगड़ा’ आम की एक नस्ल इच्छावर मे भी होती थी । ‘लंगड़ा तो बस नाम का ही लंगड़ा, स्वाद मे तो बहुत तगड़ा’ ।

ऐसे कई ‘आम किस्सों, ‘आम बातों’, आम ‘मुलाकातों’ ने इछावर को मेरे जीवन मे ‘खास’ बना दिया । – डॉ अजय शर्मा

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