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भारत में डिजिटल निजता की चिंता और डेटा संरक्षण कानून की अनिवार्यता- शैलेश शुक्ला

समसायमिक

भारत में डिजिटल निजता की चिंता और डेटा संरक्षण कानून की अनिवार्यता

डॉ. शैलेश शुक्ला

वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह

भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां तकनीकी प्रगति अपने चरम पर है। डिजिटल भारत का सपना अब केवल एक सरकारी नारा नहीं, बल्कि आम नागरिक की जीवनशैली का हिस्सा बन चुका है। स्मार्टफोन, इंटरनेट, डिजिटल पेमेंट्स और सोशल मीडिया का विस्तार इतना व्यापक हो चुका है कि देश की एक बड़ी आबादी अब हर क्षण डिजिटल रूप से जुड़ी रहती है। लेकिन इस डिजिटल विकास की चमक के पीछे एक गंभीर खतरा भी छिपा है — नागरिकों की निजता और व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा। हर बार जब कोई उपयोगकर्ता किसी वेबसाइट पर लॉगिन करता है, किसी ऐप को डाउनलोड करता है या सोशल मीडिया पर कोई जानकारी साझा करता है, तब वह जाने-अनजाने में अपना निजी डेटा विभिन्न कंपनियों और संस्थाओं को सौंप रहा होता है। यह डेटा न केवल उनकी पहचान, स्थान और आदतों से जुड़ा होता है, बल्कि कई बार उनकी संवेदनशील जानकारी जैसे बैंक डिटेल्स, हेल्थ रिकॉर्ड्स और पर्सनल कॉन्वर्सेशन तक को शामिल करता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या आम नागरिक को पता है कि उसका डेटा कहां जा रहा है, किसके पास जमा हो रहा है और उसका उपयोग कैसे किया जा रहा है?

भारतीय संदर्भ में निजता का अधिकार लंबे समय तक एक अस्पष्ट विचार रहा। लेकिन 2017 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने इसे मौलिक अधिकार घोषित कर एक नई दिशा दी। अदालत ने कहा कि निजता, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा है। यह निर्णय उस समय आया जब आधार जैसी योजनाओं के माध्यम से सरकार बड़े पैमाने पर नागरिकों की जानकारी एकत्र कर रही थी। हालांकि, यह फैसला अपने-आप में एक बड़ी जीत था, पर यह स्पष्ट था कि केवल एक न्यायिक घोषणा से डिजिटल निजता की रक्षा नहीं हो सकती। भारत को एक स्पष्ट, सख्त और व्यावहारिक डेटा संरक्षण कानून की आवश्यकता थी जो कंपनियों और सरकारी एजेंसियों दोनों को जवाबदेह बना सके। खासकर ऐसे समय में जब तकनीकी कंपनियां उपयोगकर्ताओं की जानकारी को बिना उनकी सहमति के इस्तेमाल कर विज्ञापनों, सिफारिशों और विश्लेषणों के लिए बेच रही थीं। इसके अलावा साइबर अपराध, डेटा लीक और रैंसमवेयर अटैक जैसे खतरे भी निरंतर बढ़ते जा रहे थे।

डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट 2023 इस दिशा में एक साहसी और प्रशंसनीय कदम है, लेकिन यह केवल शुरुआत है। कानून अपने आप में तब तक प्रभावी नहीं होता जब तक उसे ईमानदारी, पारदर्शिता और नागरिक सहभागिता से लागू न किया जाए। इसके लिए सरकार, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज को मिलकर काम करना होगा।

इस प्रक्रिया में सरकार को चाहिए कि वह सख्त निरीक्षण प्रणाली बनाए, कंपनियों को जवाबदेह बनाए और पारदर्शिता सुनिश्चित करे। निजी कंपनियों को भी समझना होगा कि ग्राहक की जानकारी केवल एक संसाधन नहीं, बल्कि एक भरोसा है — जिसे बनाए रखना उनके दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए जरूरी है। वहीं नागरिकों को भी अपने अधिकारों को जानने, समझने और उनके उपयोग के लिए तत्पर रहना होगा। जब तक यह तीनों स्तंभ — कानून, उद्योग और नागरिक — एक साथ काम नहीं करते, तब तक डिजिटल निजता केवल एक कानूनी शब्द बना रहेगा।

एक समावेशी, सुरक्षित और सशक्त डिजिटल भारत तभी संभव है जब प्रत्येक नागरिक यह जान सके कि उसकी जानकारी उसके नियंत्रण में है और उसे कोई भी ताकत बिना अनुमति के छीन नहीं सकती। यही डिजिटल लोकतंत्र की असली जीत होगी।

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