लम्हों की दस्तक
वेस्टनडीज़ से डॉ अजय शर्मा
‘भीड़-भाड़’, ‘लम्बी-लम्बी लाइन”, ‘चिल्ला-चोट’, ‘धक्का-मुक्की’, ‘पसीने से तरबतर”, ‘शर्ट के तीन बटन खुले’, ‘आधी शर्ट अन्दर तो आधी बाहर’ । पास ही कहीं, ‘एक का बीस’, ‘एक का बीस’, की आवाज से लोगों को लुभाते हुए, ‘black’ मे टिकट बेचने वाले ‘छोकरे’
। 70 के दशक मे फिल्मघरों की टिकट खिड़की पर ‘संघर्ष’ का यही कुछ नज़ारा हुआ करता था । थोडी दूर पर होता ‘साइकिल/स्कूटर स्टेंड’ । उस स्टेंड पर हाथ मे छोटी सी ‘पीली पर्ची’ थामे, इधर से उधर भागता, एक छरहरा नौजवान, वाहनों को व्यवस्थित रूप से लगवाता । दोनों ‘सिरों’ पर एक पतली सी सुतली से बंधा होता, वो सुरक्षित ‘पार्किंग स्थल’ ।
महिलाओं को ‘preferential treatment’, यानी उनके लिये एक अलग से ‘खिड़की’ और ‘लाइन’ । टिकट के लिए अक्सर जल्दी जाना पड़ता था । अलबत्ता कुछ अपवादों को छोड़, कोई ना कोई ‘भद्र’ महिला मिल ही जाती…जो थोड़ा-बहुत निवेदन करने के बाद हम लोगों की भी टिकट खरीद लेती थी । उन दिनों, अक्सर ट्रेन के सफर मे मेरे पास ‘lower-berth’ होती थी, और दस मे से आठ बार, वो किसी ना किसी महिला के लिए छोडनी पडती थी । शायद ये ही महिलाएं किसी रूप मे आकर सिनेमा-घर की ‘टिकट-खिडकी’ पर सहायता करतीं ।
उस भीड़ मे कुछ लोगों को बड़ा ही महारथ हासिल था । एक हाथ ‘खिडकी’ के अन्दर, तो दूसरे हाथ मे खुला चिप्स का पैकट और उस पर लाइन मे धक्कों के ‘थपेड़े’ । मगर वो कमाल की कुशलता से सब एक साथ ‘balance” कर लेते । उस छोटी सी ‘खिड़की’ मे एक साथ पांच हाथ अन्दर…।
“टिकट बाबू” भी गज़ब !!!, इतने ‘शोर-शराबे’ में, आंखों के सामने ‘लहराती’, ‘नाचती”, “थिरकती’ पच्चीस उंगलियों में भी उसे मालूम किन उंगलियों को एक, किसको दो और किसको पांच टिकट देनी है !! साथ ही उसे ये भी पता होता की, किसके कितने पैसे वापस करने हैं !!
हां !!! अगर आपका दिन खराब है तो ‘हाउसफुल’ का board’ भी मिल सकता है । और ये भी मुमकिन है की, ऐन आपका नम्बर आने पर खिडकी बंद हो जाये ।
टिकट मिल जाने के बाद, अन्दर प्रवेश के लिए, एक और लम्बी लाइन । आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ती वो लाइन, दरअसल थी चटपटे, मसालेदार, गॉसिप का सेन्टर । मेरे आगे खड़े दो साहिबान बेझिझक होकर बहुत देर से गुफ़्तगू मे मशगूल थे । उनकी बातों से मेरा काफी ज्ञान बड़ा । उनकी चर्चा का निचोड़ कुछ इस तरह से था… “1957 की फिल्म ‘नया दौर’ की शूटिंग भोपाल मे हुई” !! “मधुबाला के अब्बाहुज़ूर को मधुबाला-दिलीप कुमार का साथ कतई पसंद नहीं था। उनके एतराज के चलते इस फिल्म से मधुबाला हटीं और वैजयंतीमाला को लिया गया” । !!! “शकीला बानो भोपाली, दिलीप कुमार के कहने पर ही बम्बई गईं, बाद मे वो फिल्म इन्डस्ट्री की पहली महिला कव्वाल बनीं” । “राजेश खन्ना को भोपाल के पान बहुत पसंद थे” ।
तमाम बाधाओं को पार करते, उस अंधेरे पिक्चर हाल मे, उन टार्च वाले सज्जन की मदद से आप जा पहुंचते, अपनी सीट पर । हर शख्स को सीट पर पहुंचने की जल्दी !! शायद ये वो दौर था जब कुछ ‘advertisement’ भी फिल्मों की तरह ही लोकप्रिय थे, और लोग उन्हे miss करना पसंद नहीं करते थे ।
~ दूध सी सफेदी निरमा से आये, रंगीन कपड़ा भी खिल खिल जाये, सबकी पसंद निरमा । वाशिंग पाउडर निरमा ।।
~ आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों से बना सम्पूर्ण स्वदेशी ‘विको वज्रदन्ती’.. टूथपाउडर, टूथपेस्ट ।।
~ जब मे छोटा लडका था, बड़ी शरारत करता था, मेरी चोरी पकड़ी जाती जब रोशन होता ‘बजाज’ ।।
~ खुर्रम खुर्रम, लज्जतदार, मजेदार, “लिज्जत पापड़’ ।
उन दिनों शहर मे एक नये टाकीज का निर्माण हुआ…’Lily Talkies’ । यह एकमात्र टाकीज था जिसमें, उपर बालकनी पर जाने के लिए सीढियों के स्थान पर एक मुलायम कार्पेट से ढके ‘Ramp’ की सुविधा दी गयी थी । बहुत से लोग तो फिल्म देखने कम और ‘ramp’ पर चलने ज्यादा जाते थे ।
‘दौर चाहे कोई भी रहा हो, कैसा भी रहा हो’ !! फिल्मों की लोकप्रियता हमेशा बनी रही !! और फिल्में सिर्फ टाकीज तक ही सीमित नहीं थी !!। ये शहर मे हर्षोल्लास से मनाये जाने वाले, ‘गणेश उत्सव’ और ‘दुर्गा उत्सव’ का भी महत्वपूर्ण हिस्सा होतीं ।
Oct-Nov का महीना । भोपाल मे ‘नवरात्रों/दुर्गा उत्सव’ की धूम-धाम । शहर के बीच मे बसा खूबसूरत…..’साउथ टी. टी. नगर’ । चारों और ‘हरे-भरे’ पेड, ‘चौडी-चौड़ी” सड़कें और व्यवस्थित रूप से बने सैकड़ो ‘single story’ मकानों की कतारें ।
हर वर्ष, घर के पास ही ‘टीन शेड’ बस स्टाप पर होती थी एक विशाल झांकी की स्थापना । कारीगरों ने अपने अथक प्रयास से नीचे बनाया एक बडा ‘जलाशय’ । और उपर लकड़ी के तख्तों और टहनियों से कृत्रिम पहाड़ों का निर्माण कर, झांकी को किसी ‘समुद्र छोर’ का स्वरूप दिया । झांकी का संदर्भ ये है कि वानर टोली से घिरे, ‘महाबली हनुमान” उस ‘अगम्य’ 100 योजन समुद्र को लांघने के लिए तत्पर हैं ।
निराशाओं मे आशा की किरण जगाता, समूचे मानव जाति के लिए ‘गोस्वामीजी’ एक बहुत ही प्रबल और प्रेरणादायक संदेश..
“दुर्गम काज जगत के जेते..
सुगम अनुग्रह तुमरे तेते” ।
दुश्कर से लगने वाले, कठिन से कठिन कार्य भी उन संकट मोचन, ‘बजरंग बली’ के सामीप्य और कृपा से सहज और सरल हो जाते हैं ।
शाम होते ही देवी भजन और गीतों से शहर भक्तिमय हो उठता…”मे तो आरती उतारूं रे, संतोषी माता की”….
“करें भगत हो आरती, माई दोई बिरियां” !!
दर्जनों स्थानों पर झांकियों का उल्लास । हर झांकी का, अपना अलग ही वैभव और शास्त्र सम्मत प्रसंग ।
शहर मे तो जैसे मेला लगा हो । कहीं रेवड़ी वाला, तो कही ‘खोमचा’ लेकर घूमता ‘चना-चोर-गर्म वाला’ । किसी ठेले पे रेत की ‘तगारी’ मे सिक रही ‘नयी ताज़ा मूंगफली’, तो कहीं बिक रही स्वादिष्ट ‘फालूदा-आइस्क्रीम’ । लड़कियों के झुंड से घिरे दर्जनों ‘चाट के ठेले’ । बाजारों मे रौनक.. । सड़कों पर अथाह चहल-पहल ।
हर आयोजन-स्थल पर अलग-अलग रंगारंग कार्यक्रम । उधर पुराने शहर के ‘चौक बाजार’ मे रंग जमा रहा, भोर होने तक खत्म ना होने वाला, ‘विराट कवि-सम्मेलन’ । मंच पर विराजमान, अनेक नामी-गामी गीतकार और कविगण । ‘माणिक वर्मा’, ‘शैल चतुर्वेदी’, ‘निर्भय हाथरसी’, ‘संतोष आनन्द’ और ‘गोपाल दास जी नीरज’ । नीरज यूं तो काव्य जगत के एक बहुत सक्षम और स्थापित कवि थे । लेकिन कविता के साथ ही उनकी लेखनी से निकले कई दिल को छू लेने वाले फिल्मी गीत… “खिलते हैं गुल यहां, खिलके के बिछड़ने को”….
“फूलों के रंग से, दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज पाती”
इधर नये भोपाल के ‘माडल स्कूल ग्राउंड’ की बड़ी स्क्रीन पर प्रोजेक्टर पर दिखाई जा रही सदाबहार फिल्म ‘उपकार’ । दूर-दूर तक लगे लाउडस्पीकर । आस पास की कालोनी के रहने वाले लोग अपने घरों से लाई दरी और चटाई बिछाकर पूर्ण निश्चितता से फिल्म का आनंद ले रहे । जिन्हे नीचे बैठने मे असुविधा वो साथ लाते बांस के मुड्डे । हल्की-सी हवा मे ‘ठंडक’ । कंधों पर डली पतली सी ‘शाल’ । थर्मस की गर्म चाय की चुस्कियों के साथ, खुले गगन के तले चलचित्र का अपना एक अलग ही अनुभव । ये उन दिनों के ‘Open-air-theatre’ हुआ करते थे ।
अन्य कई स्थानों पर भी जोर-शोर से हो रहा फिल्मों का प्रदर्शन । कही पर ‘पूरब-पश्चिम’ दिखाई जा रही, तो कही ‘जिस देश मे गंगा बहती है’ । दरअसल, बकायदा, घोषणा होती, pamphlets बटते, कि किस दिन !!, कहां पर,!! कौन सी पिक्चर दिखाई जायेगी !! । लोग स्वेच्छा से चंदा देते और बढचढ कर सभी कार्यक्रमों मे योगदान देकर, इन आयोजनों को सफल बनाते । इसके अलावा बच्चों के लिये कई कार्यक्रम…’Dance’ , ‘singing’, ‘drawing’ और ‘essay competition’. । ये सभी आयोजन समाज के अन्दर ‘धार्मिक’, ‘सांस्कृतिक’, और ‘नैतिक’ मूल्यों को प्रगाढ करते ।
एक लम्बे समय से तमन्ना थी बचपन का अपना पुराना घर देखने की । विदेश मे बसे एक मित्र, जो पुराने पड़ोसी रहे, उन्होंने कहा भी था, कभी बचपन वाले घर जाओ तो बताना अनुभव कैसा रहा ??।
बहुत साल बाद 2023 में टी टी नगर के उन्हीं हिस्सों मे दोबारा जाना हुआ । अब सब कुछ बदला बदला सा था !! एक बड़ी बिल्डिंग के पास, कोई 8-10 साल का बालक, पैर से धकेलने वाली स्कूटर पर चक्कर लगा रहा था । बीच मे ‘कनखियों’ से वो मेरी और देख लेता । मै सुनहरी यादों मे खो गया । कई साल पहले यहां छोटी-छोटी कालोनी होती थीं । किसी कालोनी मे बच्चे ‘कन्चे’ खेल रहे होते तो किसी मे ‘सितोलिया’ । कहीं पर ‘घोड़ा बादाम खाई, पीछे देखे मार खाई वाला खेल’ । यहीं कहीं, किसी रोड पर हम भी अपने दोस्तों के साथ ‘साइकिल रेस’ लगा रहे होते । पास से गुजरती किसी गाड़ी के तेज हार्न से मेरा ध्यान टूटा ।
अब वो single story मकानों की जगह पर हैं, चौडी-चौड़ी सड़कें । कुछ multi story ‘काम्प्लेक्स’ बन गये। जिन्मे है ‘पार्क’, ‘स्वीमिंग पूल’ और अन्य कई सुविधायें । वहां से कुछ ही दूर पर है एक बडा स्टेडियम जिसमें ‘Indoor’ और ‘Outdoor’ खेलों की सुविधा ।
पास ही के मैदान मे कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे । दो टीमों के बीच मैच हो रहा था। मे देखने लगा, तभी कुछ बच्चे पास आकर बोले..”अंकल एक ‘प्लेयर’ कम है, आप खेल लो ‘प्लीज’ । मे सहर्ष ही तैयार हो गया। कुछ देर खेलने के बाद वापस लौटने लगा तो वो स्कूटर वाला बालक फिर मिल गया। वो मुझे क्रिकेट खेलते देख चुका था । शायद वो मेरी बैटिंग से प्रभावित था । उसने मुस्कुराकर पूछा …”अंकल स्कूटर चलाओगे”?? और मैने खुशी खुशी पास के दो छोटे चक्कर लगाये ।
घर लौटकर मैने मित्र को मेसेज भेजी..
# टूर बहुत-बहुत successful था..
# बहुत ही हसीन शाम गुजरी…
# बचपन कुदरत का एक बहुत ही नायाब *‘आफर’* है..
# ये ‘प्लान’ कभी भी *‘रिचार्ज’* किया जा सकता है..
# इस प्लान की *‘वेलिडिटी’* कभी खत्म नहीं होती ।।