समसामयिक

“भारत में मोबाइल प्रयोग का बच्चों पर पड़ता दुष्प्रभाव”

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“भारत में मोबाइल प्रयोग का बच्चों पर पड़ता दुष्प्रभाव”
– डॉ. शैलेश शुक्ला 

            डॉ. शैलेश शुक्ला (वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह)

आधुनिक युग में मोबाइल फोन अब केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि बच्चों की दिनचर्या और जीवनशैली का अभिन्न अंग बन चुका है। विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में, माता-पिता अपने कार्य में व्यस्त रहते हुए बच्चों को मोबाइल फोन थमा देते हैं ताकि वे शांत और व्यस्त बने रहें। लेकिन यह सुविधा अब एक गंभीर समस्या का रूप लेती जा रही है। वर्ष 2023 में “नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेस (NIMHANS)” द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 10 से 17 वर्ष की आयु के बच्चों में से लगभग 31.4% बच्चे किसी न किसी मानसिक तनाव या चिंता का सामना कर रहे हैं, जिनमें से अधिकांश का कारण स्क्रीन समय का अत्यधिक बढ़ना है। मोबाइल फोन के कारण बच्चों की एकाग्रता में गिरावट, चिड़चिड़ापन, और आक्रामक व्यवहार तेजी से बढ़ रहा है।

ऑनलाइन गेमिंग, सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म बच्चों के दिमाग पर लगातार उत्तेजक सामग्री डालते हैं, जिससे वे वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में सामंजस्य बिठाने में अक्षम हो जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2019 में “Gaming Disorder” को मानसिक विकार के रूप में मान्यता दी थी। इस संदर्भ में 2021 में “लांसेट साइकेट्री” (The Lancet Psychiatry) द्वारा किए गए एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में पाया गया कि ऑनलाइन गेमिंग से जुड़े बच्चों में असामाजिक व्यवहार, आत्म-केन्द्रित दृष्टिकोण और गुस्सैल प्रवृत्तियाँ अधिक देखने को मिलीं। भारत के संदर्भ में AIIMS दिल्ली के एक शोध (2022) में बताया गया कि 12 से 16 वर्ष के किशोरों में से 33.1% बच्चे डिप्रेशन से पीड़ित हैं, 24.9% को चिंता रहती है और 56% बच्चों में व्यवहारिक उतावलापन या चिड़चिड़ापन देखा गया है – जो सीधे तौर पर मोबाइल के अनियंत्रित उपयोग से जुड़ा है।

इन मानसिक समस्याओं का असर बच्चों के भावनात्मक विकास पर भी पड़ता है। वे धीरे-धीरे परिवार और समाज से कटने लगते हैं। माता-पिता की अनुपस्थिति में स्क्रीन ही उनका साथी बन जाती है, जो उन्हें स्वाभाविक संवेदनाओं से दूर कर देता है। डिजिटल दुनिया में हर समय उपलब्ध रहने की आदत बच्चों के सोचने-समझने और निर्णय लेने की शक्ति को कमजोर कर रही है। यह स्थिति सामाजिक व्यवहार की जड़ों को कमजोर करती है और बच्चे आभासी दुनिया में खो जाते हैं, जिससे आत्म-संयम, आत्म-निर्भरता और जिम्मेदारी जैसे गुण विकसित नहीं हो पाते।

मोबाइल फोन के अत्यधिक प्रयोग का सबसे प्रत्यक्ष दुष्प्रभाव बच्चों की नींद पर पड़ता है। ब्लू लाइट का प्रभाव नींद के हार्मोन मेलाटोनिन (Melatonin) को बाधित करता है, जिससे बच्चों को सोने में कठिनाई होती है। “किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (KGMU), लखनऊ” की 2022 की एक रिसर्च के अनुसार, मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाली ब्लू लाइट बच्चों की नींद की गुणवत्ता को 58% तक घटा सकती है, जिससे वे दिन भर थकान, एकाग्रता की कमी और चिड़चिड़ेपन का अनुभव करते हैं।

नींद की कमी बच्चों के विकास को भी प्रभावित करती है। राष्ट्रीय शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रम (RBSK) के अनुसार, 6 से 14 वर्ष के बच्चों को प्रतिदिन कम से कम 9-10 घंटे की नींद की आवश्यकता होती है, लेकिन मोबाइल पर अधिक समय बिताने वाले बच्चों में यह औसत केवल 6 से 7 घंटे तक ही सीमित रह जाता है। नींद की कमी न केवल मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि शारीरिक विकास, इम्यूनिटी और मेमोरी निर्माण को भी बाधित करती है।

इसके साथ ही, मोबाइल का अत्यधिक उपयोग बच्चों के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा है। वर्ष 2023 में “इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स” द्वारा प्रकाशित एक शोधपत्र में बताया गया कि मोबाइल पर अधिक समय बिताने वाले बच्चों में मोटापा 18% अधिक पाया गया। क्योंकि ये बच्चे शारीरिक गतिविधियों से कट जाते हैं, जिससे उनका मेटाबोलिक रेट कम हो जाता है। इसके अलावा, आंखों पर अत्यधिक जोर पड़ने से आंखों की मांसपेशियों में तनाव, दृष्टि में धुंधलापन और “ड्राई आई सिंड्रोम” जैसे लक्षण भी देखने को मिलते हैं। “ऑल इंडिया ऑप्थाल्मोलॉजी सोसाइटी” की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, मोबाइल का 3 घंटे से अधिक उपयोग करने वाले 10 में से 6 बच्चों में आंखों की सूजन, जलन और धुंधलेपन की समस्या पाई गई।

शारीरिक निष्क्रियता के कारण बच्चों में हाई ब्लड प्रेशर और डायबिटीज जैसी बीमारियाँ भी प्रारंभिक अवस्था में विकसित हो रही हैं, जो पहले वयस्कों में देखी जाती थीं। ICMR (Indian Council of Medical Research) की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, 12 से 18 वर्ष के 14% बच्चों में ब्लड प्रेशर सामान्य से अधिक पाया गया, जिनमें से अधिकांश का स्क्रीन टाइम प्रतिदिन 5 घंटे से अधिक था।

मोबाइल फोन का अत्यधिक उपयोग बच्चों की पढ़ाई और शैक्षिक उपलब्धियों पर भी नकारात्मक असर डाल रहा है। जहां एक ओर डिजिटल शिक्षा एक क्रांतिकारी कदम माना गया, वहीं दूसरी ओर इसका अनियंत्रित प्रयोग बच्चों की बौद्धिक क्षमताओं को प्रभावित कर रहा है। “AIIMS दिल्ली” द्वारा 2022 में किए गए एक अध्ययन में बताया गया कि 10 से 16 वर्ष के छात्रों में से 48.7% छात्रों ने स्वीकार किया कि मोबाइल की वजह से वे होमवर्क और पढ़ाई से ध्यान भटकाते हैं। यही नहीं, CBSE द्वारा 2023 में किए गए एक सर्वे में बताया गया कि 12वीं के छात्रों में से 41% ने परीक्षा की तैयारी के समय भी गेमिंग या सोशल मीडिया का उपयोग करना बंद नहीं किया।

मोबाइल फोन की आदत बच्चों में सतही ज्ञान का विकास करती है, जहां वे केवल जानकारी की खोज करते हैं, लेकिन गहराई से अध्ययन नहीं करते। ‘गूगलिंग’ की आदत उन्हें स्वयं सोचने और समस्याओं को सुलझाने की प्रक्रिया से दूर करती है। “नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA)” की एक रिपोर्ट में यह स्पष्ट हुआ कि मोबाइल पर पढ़ाई करने वाले छात्रों में आलोचनात्मक सोच और विश्लेषणात्मक क्षमताएं 22% तक कम होती हैं, जो पारंपरिक पढ़ाई करने वाले छात्रों की तुलना में कम होती हैं।

इसका प्रभाव दीर्घकालिक भी है, क्योंकि मोबाइल की आदत उन्हें तुरंत gratification की आदत डालती है, जिससे वे कठिन विषयों को पढ़ने के बजाय आसान या मनोरंजक विकल्प की ओर मुड़ जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, परीक्षा के परिणामों में गिरावट, ज्ञान की गहराई में कमी और बौद्धिक विकास की रुकावट स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

शैक्षणिक प्रदर्शन पर इसका एक और नकारात्मक पहलू यह है कि मोबाइल का उपयोग बच्चों को जल्दी थका देता है और वे शारीरिक रूप से निष्क्रिय होकर मानसिक रूप से भी थकान अनुभव करने लगते हैं। “डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी” द्वारा 2023 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दिन में 4 घंटे से अधिक मोबाइल उपयोग करने वाले छात्रों में से 60% बच्चों की याददाश्त और एकाग्रता कमजोर पाई गई।

बाइल फोन का अत्यधिक उपयोग बच्चों के सामाजिक व्यवहार और पारिवारिक संबंधों पर भी गहरा प्रभाव डालता है। जिस उम्र में बच्चों को परिवार, समाज और स्कूल के वातावरण से सीखने, बातचीत करने और भावनात्मक जुड़ाव का अनुभव करना चाहिए, उस समय वे आभासी दुनिया की ओर आकर्षित हो रहे हैं। “यूनीसेफ इंडिया” द्वारा 2022 में जारी एक रिपोर्ट में यह उल्लेख किया गया कि 6 से 15 वर्ष के बच्चों में से 54% बच्चे प्रतिदिन 3 घंटे से अधिक मोबाइल का उपयोग करते हैं, और उनमें से 38% ने माना कि वे पारिवारिक बातचीत या सामाजिक आयोजनों में भाग नहीं लेना पसंद करते हैं क्योंकि वे स्क्रीन पर व्यस्त रहते हैं।

इस प्रकार की प्रवृत्ति बच्चों में सामाजिक अलगाव की भावना को जन्म देती है। वे बातचीत में कम रुचि लेने लगते हैं, जिससे उनका संप्रेषण कौशल कमजोर हो जाता है। वास्तविक जीवन में भावनाएं समझने, साझा करने और सहानुभूति प्रकट करने जैसी क्षमताएं जो मानवीय विकास की मूलभूत आवश्यकता हैं, उनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। “इंडियन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन” के अनुसार, 2023 में 10 से 14 वर्ष के 64% बच्चों ने यह स्वीकार किया कि वे अपने माता-पिता या भाई-बहनों से खुलकर बात नहीं कर पाते, क्योंकि मोबाइल स्क्रीन पर बिताया गया समय उनका प्रमुख ध्यान खींचता है।

मोबाइल की लत बच्चों में आत्म-निर्भरता और जिम्मेदारी जैसे गुणों के विकास को भी बाधित करती है। जब बच्चे हर छोटी-बड़ी बात में मोबाइल पर निर्भर रहने लगते हैं – जैसे दिशा-निर्देश प्राप्त करना, गणित के सवाल हल करना या सामान्य ज्ञान खोजना – तो वे स्वयं प्रयास करने की बजाय तुरंत उत्तर प्राप्त करने की ओर झुक जाते हैं। यह आदत धीरे-धीरे निर्णय लेने की क्षमता को भी कमजोर करती है। “नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ एंड डेवलपमेंट (NICHD)” की 2021 की रिपोर्ट में बताया गया कि डिजिटल डिपेंडेंसी के कारण बच्चों में निर्णय लेने और समस्या सुलझाने की क्षमताओं में 35% तक की गिरावट देखी गई।

पारिवारिक संबंधों की बात करें तो, जब बच्चे हर समय मोबाइल में व्यस्त रहते हैं, तो माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद का अवसर सीमित हो जाता है। बच्चों की भावनात्मक ज़रूरतों को अनदेखा करने पर वे मोबाइल से ही मानसिक संतुलन प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, जिससे माता-पिता और बच्चे के बीच दूरी बढ़ती जाती है। “Save the Children” संस्था की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 40% अभिभावकों ने स्वीकार किया कि मोबाइल की वजह से वे अपने बच्चों से घनिष्ठ संबंध नहीं बना पा रहे हैं।

च्चों पर मोबाइल के दुष्प्रभाव को रोकने के लिए केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामाजिक और नीति स्तर पर भी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। सबसे पहले तो माता-पिता को बच्चों के मोबाइल उपयोग पर स्पष्ट समय सीमा निर्धारित करनी चाहिए। “अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स” की गाइडलाइन के अनुसार, 2 से 5 वर्ष के बच्चों के लिए प्रतिदिन स्क्रीन टाइम एक घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए, जबकि 6 से 12 वर्ष के बच्चों के लिए यह अधिकतम दो घंटे हो सकता है। भारत में अभी इस तरह की कोई सख्त नीति नहीं है, लेकिन सरकार “डिजिटल इंडिया” के तहत बच्चों के लिए “किड-फ्रेंडली ऐप्स” और शैक्षणिक गेम्स को बढ़ावा देने के प्रयास कर रही है।

शैक्षिक संस्थानों को भी इसमें भागीदारी करनी होगी। स्कूलों को चाहिए कि वे छात्रों के मोबाइल उपयोग की निगरानी रखें और डिजिटल साक्षरता (Digital Literacy) के साथ-साथ डिजिटल संयम (Digital Discipline) का पाठ पढ़ाएं। शिक्षा मंत्रालय की “नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020” में प्रौद्योगिकी के उपयोग पर विशेष बल दिया गया है, लेकिन इसकी जिम्मेदारी भी तय की गई है कि इसका दुरुपयोग बच्चों को हानि न पहुंचाए।

इसके अतिरिक्त, स्थानीय प्रशासन और NGOs को समुदायों में डिजिटल जागरूकता अभियान चलाने चाहिए, जिससे अभिभावकों और शिक्षकों को यह समझाया जा सके कि मोबाइल का संतुलित उपयोग ही बच्चों के हित में है। वर्ष 2023 में “प्रथम फाउंडेशन” द्वारा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में किए गए एक अध्ययन में यह देखा गया कि जब बच्चों को शारीरिक खेल, सामूहिक गतिविधियों और रचनात्मक कार्यों में भाग लेने का अवसर मिला, तो उनका मोबाइल उपयोग 47% तक कम हुआ।

बच्चों को मोबाइल की आदत से हटाने के लिए उन्हें विकल्प देने होंगे – जैसे पठन-पाठन, संगीत, चित्रकला, नाटक, योग और खेल। माता-पिता स्वयं एक उदाहरण प्रस्तुत करें, क्योंकि यदि वे हर समय मोबाइल पर लगे रहते हैं, तो बच्चे उनसे भिन्न व्यवहार नहीं सीखेंगे। “हावर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ” की 2022 की एक रिपोर्ट बताती है कि यदि माता-पिता एक दिन में केवल 2 घंटे मोबाइल उपयोग करते हैं और बाकी समय बच्चों के साथ बिताते हैं, तो बच्चों का स्क्रीन टाइम अपने आप घट जाता है।

अंततः, तकनीक को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता, लेकिन उसका संतुलित और जिम्मेदार उपयोग ही बच्चों के विकास के लिए हितकारी होगा। मोबाइल फोन के संभावित लाभों – जैसे शैक्षिक वीडियो, भाषा कौशल का विकास, और रचनात्मक ऐप्स – को यदि सही मार्गदर्शन और सीमित समय के साथ अपनाया जाए, तो तकनीक बच्चों के लिए वरदान भी बन सकती है।

भारत में मोबाइल फोन का बच्चों पर प्रभाव एक व्यापक सामाजिक, मानसिक और शैक्षिक समस्या का रूप लेता जा रहा है। चाहे वह मानसिक तनाव और नींद की कमी हो, या सामाजिक अलगाव और शैक्षिक प्रदर्शन में गिरावट – मोबाइल फोन के अति प्रयोग ने बच्चों के चहुंमुखी विकास में अनेक बाधाएं उत्पन्न की हैं। उपरोक्त सभी प्रमाणित रिपोर्टें और शोध स्पष्ट संकेत देती हैं कि यदि यह प्रवृत्ति इसी तरह बढ़ती रही, तो भारत का अगला पीढ़ीगत आधार ही असंतुलित हो सकता है।

हालांकि, यह समस्या समाधानविहीन नहीं है। माता-पिता, शिक्षक, नीति-निर्माता, और स्वयं बच्चे यदि मिलकर जिम्मेदारी से डिजिटल दुनिया को अपनाएं और इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए उचित कदम उठाएं, तो यह संकट एक अवसर में भी बदल सकता है। जरूरत है तो केवल जागरूकता, अनुशासन, और प्रेमपूर्ण मार्गदर्शन की।

लेखक का पूर्ण परिचय

डॉ. शैलेश शुक्ला वैश्विक स्तर पर ख्याति प्राप्त वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, भाषाकर्मी, होने के साथ-साथ ‘सृजन अमेरिका’, ‘सृजन ऑस्ट्रेलिया’, ‘सृजन मॉरीशस’, ‘सृजन मलेशिया’, ‘सृजन कतर’, ‘सृजन यूरोप’ जैसी विभिन्न अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं के वैश्विक प्रधान संपादक हैं। डॉ. शुक्ला द्वारा लिखित एवं संपादित 25 पुस्तकें, दिल्ली विश्वविद्यालय और इग्नू की बीए और एमए के पाठ्यक्रमों सहित कुल 30 से अधिक अध्याय विभिन्न पुस्तकों में, 30 से अधिक शोध-पत्र, कविताओं, लेखों, कहानियों, व्यंग्यों सहित कुल 300 रचनाएं प्रकाशित हैं। डॉ. शैलेश शुक्ला भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा प्रदत्त ‘राजभाषा गौरव पुरस्कार (2019-20)’ और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की हिंदी अकादमी द्वारा ‘नवोदित लेखक पुरस्कार (2004)’ सहित विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मानो एवं पुरस्कारों से सम्मानित हैं।

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