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नशा मुक्ति जन जाग्रति अभियान : क्या खोया,क्या पाया ?

त्वरित विचार

“नशा मुक्ति जन जाग्रति अभियान”                     क्या खोया,क्या पाया ?

        राजेश शर्मा

मध्यप्रदेश में शासन द्वारा नशा मुक्ति जन जाग्रति अभियान 15 जुलाई से आरंभ होकर 30 जुलाई बुधवार तक चला। पुलिस विभाग को जिम्मा सौंपा गया था कि विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से वे समाज को ऐसी घुट्टी पिलाएं कि नशेड़ियों का नशाप्रेम रफूचक्कर हो जाए और वे मयखानों का रास्ता भूल जाएं। लेकिन क्या ऐसा हो सका?

सभी थानों ने ऊपरी फरमान को सरआंखों पर लिया और देशभक्ति जनसेवा को सर्वोपरि जानते हुए लाठी-बंदूक को 15 दिनों तक कमतर माना और झंडे,बेनर,पोस्टर उठाकर चोर-उचक्कों को वारदात के लिए खुला छोड़ दिया।

जिसका नतीजा यह निकला कि पिछले 15 दिनों के अंदर नगरीय एवं ग्रामीण इलाकों में मारपीट, चोरी की वारदातों में इज़ाफा हुआ। थानों में तफ्तीशें ताश के महल की तरह ढह गई। ढाबों और कोठेनुमा मकानों में ताश के 52 वीरों का अड्डा ओर भी हट्टा-खट्टा हो गया। गांवों में मधुशालाएं शबाब पर आ गईं।
सीहोर जिले के इछावर थानांतर्गत ग्राम बोरदी कलां में तो पुलिस का अभियान देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किसी राजनीतिक दल के “नेताजी” की आमसभा चल रही हो। कार्यक्रम में ग्रामीण महिलाओं को भी बुलाया गया। भीड़ इकट्ठी करने के लिये उसी तरह हथकंडे अपनाए गए जिस तरह बेसुरा गायक नगमा सुनाता है और आँख मार कर तालियां कुटवाता है, और पारिश्रमिक लेकर चलता बनता है।

“नशे से दूरी है जरुरी” को फायर ब्रांड बेनर बनाया गया। नशा वास्तव में सर्वनाशी है और यह भी जाहिर है कि “नशा” कभी “शान” नहीं हो सकता और “शान” कभी “नशा” नहीं हो सकती।
फिर नशे की दुकानों को शह किसकी है ?
कहते हैं कि “आध्यात्म का सप्ताह और पुलिस का हफ्ता” कभी खत्म नहीं हो सकता। नशा मुक्ति अभियान खत्म हो सकता है लेकिन नशा नहीं, क्योंकि अब चाणक्य कहां रहे!!
कांटेदार वृक्षों को जड़ समेत उखाड़ कर फेंका जाता है और चाणक्य नीति तो यह भी कहती है कि खोदे गए पेड़ के गड्ढे में छाछ डाल दिया जाता है ताकि उस स्थान पर युग-युगांतर तक कोई कांटेदार पौधा जन्मे ही नहीं।

मसलन अब नशे की दुकानों को राजस्व प्राप्ति के लालची नज़रों से परे रखा जाए। शासन के लिए ठोस कदम उठाने का वक्त आ गया है। नशीले व्यापार की नाभि पर निशाना साधा जाए तभी समाज सुधार के गानों में सुरीलापन आ पाएगा। और दैत्यों की फाइल पर खात्मा लग सकेगा। वैसे भी नशे के कारोबारी कोई गरीब व्यक्ति तो होते नहीं हैं जिनके बारे में सरकार सोचे कि बेचारा दुकान बंद करने के बाद कहां जाएगा!!
बीबी-बच्चे भूखे मर जाएंगे!!
उसके परिवार का क्या होगा?

शासन खुद अपने विभागों की व्यवस्था बिगाड़ने में लगा है। पुलिस,शिक्षा एवं स्वास्थ्य विभाग के ऊपर बेतुके कार्यों का भार थोपा जा रहा है। निहत्था कर उसे जंग में भेजने का फरमान जारी किया जा रहा है।
नशा मुक्ति अभियान चलाकर कर्तव्य की पूर्णाहूति की जा रही है। दुर्घटनाग्रस्त वाहन के चालक का नशा परीक्षण सबसे पहले किया जाता है लेकिन नशे की दुकानों का नहीं। क्या यह कम आश्चर्य की बात है? शराब बंदी में झिझक क्यों है। क्यों करोड़ों-अरबों रुपये अभियानों की भट्टी में बेमतलब फूंके जा रहे हैं।

यक्ष प्रश्न यह है कि “नशा मुक्ति जन जाग्रति” अभियान से इन 15 दिनों में प्रदेश ने क्या खोया,क्या पाया ?
इसका सही जवाब तो भोपाल में बैठे वो आला अफसरान ही बता पाएंगे जो मवेशियां गिनने के बजाए उनकी टांगे गिनते हैं और फिर उसमें 4 का भाग देकर मवेशियों की कुल संख्या बताते हैं। वैसे फील्ड में फिलहाल तो स्थिति पहले जैसी तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में बताई जा रही है।

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