प्रसंगवश

लोकतंत्र पर लगा था ताला – 25 जून 1975 की सीख, इंदिरा गांधी का निर्णय: स्थिरता की मजबूरी राजनीतिक मजबूती?

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लोकतंत्र पर लगा था ताला – 25 जून 1975 की सीख,

इंदिरा गांधी का निर्णय: स्थिरता की मजबूरी राजनीतिक मजबूती?

अनिल मालवीय,                                               लेखक एवं शिक्षाविद, भोपाल

25 जून भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। 1975 को इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल (Emergency) घोषित किया गया था। यह वह क्षण था जब संविधान की आत्मा पर सवाल खड़े हो गए थे, नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे और प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया था। यह केवल एक राजनीतिक घटना नहीं थी, बल्कि एक पीढ़ी के लिए सीख थी कि लोकतंत्र केवल अधिकारों का नहीं, बल्कि कर्तव्यों और जागरूकता का भी नाम है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया। इसके बाद जनांदोलन तेज हुआ, जिसे जयप्रकाश नारायण ने नेतृत्व दिया। इसी उथल-पुथल में 25 जून को आपातकाल की घोषणा की गई – तर्क दिया गया कि देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा है।

संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लगाया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लागू हो गई हजारों विपक्षी नेताओं को बिना मुकदमे के जेल में डाल दिया गया। जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया, जिसने आमजन में भय पैदा कर दिया। नागरिक स्वतंत्रताओं का गला घोंटा गया। 21 महीनों तक आपातकाल चला, परंतु लोकतंत्र की नींव इतनी मजबूत थी कि 1977 में जैसे ही चुनाव हुए, जनता ने सत्ता बदल दी। यह इस बात का प्रमाण था कि भारत का आम नागरिक लोकतंत्र को समझता है और जब समय आता है, तो वह सही निर्णय लेने में सक्षम होता है। 25 जून हमें यह याद दिलाता है कि लोकतंत्र एक जीवंत व्यवस्था है, जिसकी रक्षा केवल संविधान से नहीं, बल्कि नागरिकों की सजगता से होती है। यह दिन हमें यह भी सिखाता है कि सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाए रखना और संविधान की मर्यादा को समझना हर भारतीय का कर्तव्य है।

“लोकतंत्र का प्रहरी केवल संविधान नहीं, जागरूक नागरिक होता है।” 25 जून की घटना को केवल एक पक्षीय आलोचना से नहीं, बल्कि समय, स्थिति और उद्देश्य की व्यापक समझ से देखना ज़रूरी है। कांग्रेस विचारधारा से यह एक ऐसा निर्णय था, जो तत्कालीन भारत को प्रशासनिक, आंतरिक और सामाजिक विघटन से बचाने का प्रयास था – भले ही वह इतिहास में विवादित बना रहा। “लोकतंत्र की नींव को बनाए रखने के लिए कभी-कभी साहसिक निर्णय भी इतिहास रचते हैं।”

आपातकाल एक सीख है, न कि केवल आरोप। यह हमें चेतावनी देता है कि किसी भी लोकतंत्र को सजग नागरिक ही जीवित रखते हैं। प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता और विपक्ष की आवाज़ — यही लोकतंत्र की रीढ़ हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी को भी यह अहसास हुआ कि सत्ता का संतुलन तभी संभव है, जब संवाद और असहमति के लिए दरवाज़े खुले रहें।

आपातकाल पर आज भी देश में मतभेद है – कोई उसे अनुशासन की आवश्यकता कहता है, कोई लोकतंत्र का पतन। लेकिन यह तय है कि इस तारीख ने भारत को आत्मचिंतन का मौका ज़रूर दिया। यही लोकतंत्र की खूबी है — बहस, मतभेद और विचारों की स्वतंत्रता। किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती तब आती है, जब व्यवस्था और स्वतंत्रता के बीच टकराव हो। उस समय भारत में यही हो रहा था — आंदोलन, हड़तालें, आर्थिक संकट और सत्ता पर संकट। ऐसे में आपातकाल को केवल तानाशाही कह देना आसान है, लेकिन यह भी सच है कि तब देश प्रशासनिक और राजनीतिक अराजकता की ओर बढ़ रहा था।

“आपातकाल लोकतंत्र की हार नहीं, चेतावनी थी। और उस चेतावनी से भारत ने सीखा — यह हमारे संविधान की सबसे बड़ी जीत है।”

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