संस्कृति विभाग की अकादमियों में पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता, विक्रमादित्य शोध पीठ भटक रही अपने उद्देश्यों से, उठ रहे सवाल- विजया पाठक
लेख

संस्कृति विभाग की अकादमियों में पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता,
विक्रमादित्य शोध पीठ भटक रही अपने उद्देश्यों से, उठ रहे सवाल
श्रीराम तिवारी ने विभाग को बना दिया राजनीति का अड्डा

विजया पाठक,भोपाल
एडिटर, जगत विजन
मध्यप्रदेश सांस्कृतिक रूप से अपनी समृद्ध परंपरा, लोक कला, शिल्प, संगीत और नाट्य विरासत के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ की सांस्कृतिक संस्थाएँ चाहे वह भारत भवन हो, अलीराजपुर की जनजातीय अकादमी हो या विक्रमादित्य शोध पीठ। सभी ने राज्य की सांस्कृतिक पहचान को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परंतु हाल के वर्षों में यह चर्चा तेज हुई है कि इन संस्थाओं की प्राथमिकताएँ अपने मूल उद्देश्य से भटककर केवल आयोजनों और तात्कालिक दिखावे तक सीमित हो गई हैं।
विक्रमादित्य शोध पीठ शोध से अधिक “शो” का पीठ?
मध्यप्रदेश सच में अजब भी है और गजब भी। यहाँ इतिहास उतना ही जिंदा है जितनी राजनीति। वर्षों से धूल खा रही विक्रमादित्य शोध पीठ अचानक एक दिन जाग उठी। पीठ को मिल गए श्रीराम तिवारी। और फिर क्या था, पीठ में लूटमार मच गई। पीठ का काम शोध करना है लेकिन अब इसका काम केवल शो बाजी करना हो गया है। बड़े-बड़े आयोजन कर सरकारी पैसों का दुरूपयोग करना है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव और श्रीराम तिवारी की जोड़ी ने इस पुरातन संस्थान में ऐसा प्राण फूंका कि पीठ अब शोध नहीं, बल्कि “शो” का केंद्र बन गई है। खास बात यह है कि यह शोध पीठ संस्कृति परिषद के अंतर्गत कार्य करती है। इस परिषद के अध्यक्ष मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव है। शिवराज सिंह चौहान ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने केवल शोध पर कार्य करने के लिए बजट दिया। बड़े-बड़े एवेंट के लिए नहीं दिया। कभी यह शोध पीठ संस्कृति और इतिहास के गहन अध्ययन का केंद्र हुआ करती थी। पर अब इसमें शोध कम, “शो” ज़्यादा हैं। पहले यहाँ विद्वान आते थे, अब विज्ञापनदाता आते हैं। पहले यहाँ ग्रंथ छपते थे, अब पोस्टर और बैनर छपते हैं। अब शोध पत्र नहीं, प्रेस नोट जारी होते हैं। श्रीराम तिवारी जबसे संस्कृति विभाग में आये हैं तबसे यह कला, संस्कृति का नहीं बल्कि राजनीति का अखाड़ा बन गया है।
शोध और अध्ययन के उद्देश्य से स्थापित संस्थाएँ
विक्रमादित्य शोध पीठ जैसी संस्थाएँ राज्य में संस्कृति, इतिहास और दर्शन के गहन अध्ययन के लिए स्थापित की गई थीं। इनका मुख्य उद्देश्य था प्राचीन भारतीय परंपराओं, साहित्य, कला और समाज की जड़ों को समझना और उस पर आधुनिक दृष्टिकोण विकसित करना। परंतु आज ऐसे कई संस्थान शोध और अध्ययन से अधिक अपने आयोजनात्मक स्वरूप के लिए पहचाने जा रहे हैं।
बजट और पारदर्शिता की चुनौती
संस्कृति विभाग के अंतर्गत आने वाली संस्थाओं को हर वर्ष सरकार से पर्याप्त बजट मिलता है। यह राशि कला, अनुसंधान और परंपरा संरक्षण के लिए होती है, किंतु इसकी पारदर्शिता और जवाबदेही पर कई बार प्रश्न उठे हैं। यह आवश्यक है कि इन संस्थाओं के वित्तीय लेन-देन, आयोजन खर्च और अनुदान वितरण को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाए। प्रत्येक शोध परियोजना और आयोजन का विवरण ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर होना चाहिए ताकि नागरिक समाज और कला समुदाय दोनों ही उसकी समीक्षा कर सकें।
अकादमियों के उद्देश्य और वर्तमान स्थिति
मध्यप्रदेश में संगीत, नाट्य, ललित कला, जनजातीय कला, भाषा और साहित्य से जुड़ी कई अकादमियाँ कार्यरत हैं। ये अकादमियाँ राज्य की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं, परंतु इनका कार्य अब शोध और संरक्षण से अधिक सीमित आयोजनों तक सिमट गया है। कला की निरंतरता केवल कार्यक्रमों से नहीं, बल्कि नई पीढ़ी में अनुसंधान, प्रशिक्षण और परंपरा के हस्तांतरण से होती है। अकादमियों को अब यह सोचना होगा कि वे अपने संसाधनों का प्रयोग कलाकारों के कौशल विकास, कला शिक्षा और नवाचार में कैसे करें।
विक्रमादित्य शोध पीठ को दिशा की आवश्यकता
हाल में विक्रमादित्य शोध पीठ को लेकर जो भी चर्चाएँ सामने आई हैं। चाहे वे बजट के विस्तार की हों या नए आयोजनों की। वे एक बड़े विमर्श का संकेत देती हैं कि सांस्कृतिक संस्थाओं को अपनी भूमिका पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है। यह स्वागत योग्य है कि प्रदेश स्तर पर शोध और आयोजन को लेकर उत्साह बढ़ा है, किंतु यह भी ध्यान रखना होगा कि ऐसे प्रयासों की दिशा स्पष्ट और उद्देश्य शुद्ध हो। यदि किसी भी संस्थान की प्राथमिकता “कार्यक्रम” बन जाए और “शोध” पीछे छूट जाए, तो वह अपने नाम और पहचान दोनों के साथ न्याय नहीं कर पाता।
नवाचार और स्थानीय सहभागिता
संस्कृति के संरक्षण का अर्थ केवल अतीत को सहेजना नहीं, बल्कि वर्तमान में उसे जीवित रखना है। यदि शोध पीठ और अकादमियाँ ग्रामीण, जनजातीय और शहरी समुदायों को जोड़ेंगी, तो न केवल उनकी उपयोगिता बढ़ेगी, बल्कि सांस्कृतिक चेतना भी गहरी होगी। स्थानीय कलाकारों और शोधकर्ताओं को अवसर देकर “जन-संस्कृति” को “राज्य-संस्कृति” से जोड़ा जा सकता है। विक्रमादित्य शोध पीठ और अन्य अकादमियों को अब आत्ममंथन की जरूरत है कि वे अपने उद्देश्यों को किस दिशा में ले जा रही हैं। केवल आयोजनों की चकाचौंध में या संस्कृति की आत्मा की खोज में। यदि इन संस्थाओं ने अपनी दिशा स्पष्ट रखी और पारदर्शिता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी, तो मध्यप्रदेश न केवल सांस्कृतिक रूप से समृद्ध रहेगा, बल्कि प्रशासनिक और नैतिक दृष्टि से भी एक आदर्श उदाहरण बनेगा। यही सच्चे अर्थों में “संवेदनशील और सशक्त मध्यप्रदेश” की पहचान होगी। क्रमश:



