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जनभाषाओं के लिए न्याय : अब नहीं, तो कभी नहीं- पूनम चतुर्वेदी शुक्ला लखनऊ,उत्तरप्रदेश

आलेख

जनभाषाओं के लिए न्याय : अब नहीं, तो कभी नहीं

पूनम चतुर्वेदी शुक्ला
लखनऊ,उत्तरप्रदेश (भारत)

(मुख्य संयोजक, अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रकारिता,
संस्थापक-निदेशक, अदम्य ग्लोबल फाउंडेशन एवं न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन)

आलेख–

स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ी विडंबना यह रही है कि जिस देश की आत्मा उसकी भाषाओं में बसती है, वहां भाषाओं को मात्र उत्सवों, प्रतियोगिताओं और स्मरण-दिवसों तक सीमित कर दिया गया है। जब हम कहते हैं कि “हिंदी के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले वरिष्ठ साथियों ने पहले ही एकजुटता दिखाई होती”, तो यह केवल किसी वर्ग पर आरोप नहीं, बल्कि भाषा आंदोलन की उस ऐतिहासिक विफलता की ओर संकेत है जिसने भारतीय भाषाओं को सत्ता की दहलीज तक पहुँचने से रोक दिया। यह बात असहनीय है कि स्वतंत्रता के 77-78 वर्ष बाद भी न्यायालयों में, विश्वविद्यालयों में, संसद और विधानसभा की कार्यवाही में, जनभाषाओं को सिर्फ ‘अनुवाद योग्य वस्तु’ मानकर दरकिनार किया जाता है। क्या यह केवल इसलिए है कि हमारे वरिष्ठ हिंदीसेवी वर्ग ने समय रहते ‘कार्यवाही’ की जगह ‘कविता-पाठ’ को चुन लिया? जनभाषाओं की वास्तविक मुक्ति का मार्ग केवल कार्यक्रमों, भाषणों और प्रदर्शनियों से नहीं, बल्कि जनचेतना के सघन संघर्षों से होकर ही निकलेगा।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हमारे समाज के ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग की भूमिका अक्सर दोहरी रही है। एक ओर ये लोग मंचों से भाषायी गौरव की बात करते हैं, तो दूसरी ओर अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाकर ‘भविष्य सुरक्षित’ करते हैं। ये वही लोग हैं जो राजभाषा सम्मेलनों में तालियाँ बजाते हैं, हिंदी पखवाड़ा मनाते हैं और सांस्कृतिक विभागों से बजट लेकर कवि-सम्मेलन और यात्राएँ करते हैं; परंतु जब बात न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता की आती है, तो मौन धारण कर लेते हैं। यह मौन केवल नैतिक अपराध नहीं है, यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक प्रकार का धोखा है। इस मौन की गूंज आज उस मुकदमेबाज़ किसान की निराश आँखों में सुनाई देती है, जो न्यायालय में अपने पक्ष की बात तक समझ नहीं पाता। यह स्थिति बदल सकती थी, यदि हमारे हिंदीप्रेमी बौद्धिक वर्ग ने समय रहते जनभाषा को केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकार का विषय बनाया होता।

हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि भाषा केवल साहित्य या अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती — वह सत्ता का उपकरण भी होती है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन, शिक्षा और रोज़गार जैसी संस्थाओं में भाषा के माध्यम से ही सहभागिता और वंचना तय होती है। जिस समाज में न्याय अंग्रेज़ी में होता हो, शिक्षा भी अंग्रेज़ी की अनिवार्यता पर आधारित हो और सरकारी तंत्र अंग्रेज़ी माध्यम के ‘स्पेशलिस्ट्स’ को प्राथमिकता दे, वहाँ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सम्मान मिलना केवल एक छलावा बनकर रह जाता है। और यह छलावा तब और गहरा हो जाता है जब हमारे ही कुछ वरिष्ठ लेखक, भाषाविद् और तथाकथित हिंदी समर्थक लोग इन प्रश्नों पर चुप्पी साध लेते हैं या उन्हें हाशिये पर डाल देते हैं। उनकी चुप्पी को ‘निष्क्रिय समर्थन’ कहा जा सकता है — उस व्यवस्था के लिए जो अंग्रेज़ी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए भारतीय भाषाओं को सजावट की वस्तु की तरह बरतती है।

अब यह आवश्यक हो गया है कि हम केवल ‘हिंदी दिवस’ या ‘भाषा उत्सव’ मनाने की औपचारिकता से बाहर निकलें और जनभाषाओं के अधिकार के लिए एक व्यापक जनांदोलन खड़ा करें।

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