
बिहार एक्जिट पोल…. एक मानसिक जुगाली
– शैलेश तिवारी
एक झूठ पोल…. यानी एक्जिट पोल को लेकर इन दिनों खूब चर्चा है। वह भी उस बिहार को लेकर जिसे देश में सबसे ज्यादा राजनैतिक रूप से परिपक्व माना जाता है। गौरतलब बात यह भी है कि इस सदी में बिहार राज्य के चुनावों के बाद जितने भी एक्जिट पोल सामने आए हैं। चुनावी परिणाम के सच की दहलीज पर आकर सबने दम तोड़ दिया। कोई भी सच साबित नहीं हो पाया।
ऐसी स्थिति में हालया एक्जिट पोल की गहमागहमी को लेकर भी तनातनी जैसा माहौल बन रहा है। सबके अपने अपने तर्क हैं , जिनके आधार पर सब अपना पक्ष मजबूत साबित करने पर तुले हुए हैं। जबकि एक्जिट पोल निकालने का जो तरीका अपनाया जाता है वह प्रतिशत में होता है। इस प्रतिशत को सीटों में तब्दील किया जाता है। जिसका परिणाम हम सभी ने पिछले लोकसभा चुनावों सहित अन्य मतगणना के अंतिम परिणाम में औंधे मुंह गिरते हुए देखा है।
सीधी बात करें तो कोई भी वोटर जो मतदान के बाद पोलिंग बूथ से बाहर निकलता है। क्या वह आसानी से यह बता देगा कि उसने किसको वोट दिया है? और वह भी उस बिहार जैसे राज्य में जहां अनंत सिंह जैसे बाहुबली नेता जेल में इसलिए निरुद्ध हैं कि उन पर अन्य राजनैतिक दल के नेता की हत्या कर देने जैसा आरोप लगा है। अंदाज लगा सकते हैं कि वोटर अपना दिया हुआ वोट बताकर अपनी जान जोखिम में डालना पसंद करेगा। या हम स्वयं भी मतदान के बाद किस रिपोर्टर के पूछने पर यह बताने में सहजता महसूस करेंगे कि हमने किसको वोट दिया। फिर यह तो बिहार का वोटर है जिसका नेता ही पल्टूराम के रूप में जाना जाता है। तो राज्य की प्रजा भी पोलिंग बूथ के अंदर जो कर आई है । बूथ से बाहर निकलकर पलटी मारकर बता सकती है या जिस पक्ष का व्यक्ति सामने से पूछ रहा है उसके ही पक्ष की बात कर दे। यह कौन सी असंभव बात है। ऐसा हो सकता है और हुआ भी हो।
फिर सवाल यह उठता है कि यह एक्जिट पोल क्या है? यह एक्जिट पोल मेरी समझ में उस बाबा की बाजीगरी से ज्यादा कुछ नहीं है । जो परिस्थितिवश बाबा बन गया। उसे ज्यादा सिद्धियां प्राप्त हैं नहीं, फिर भी जो उसके पास अपने सवाल लेकर आता । वह सभी से यह कहता है कि तुम्हारा काम हो जाएगा। उन सबमें से आधों का काम हो जाता है और वहीं आधे खुद भी बाबा के पक्के भक्त बन जाते हैं और पच्चीस अन्य को भी भक्त बनाकर अपने साथ बाबा के पास लाते हैं।
कुछ कुछ ऐसा ही हाल एक्जिट पोल का भी है जिसमें मात्र दो प्रतिशत वोट का अंतर जब सीटों में तब्दील होता है तो 25 सीट तक अंतर पैदा हो जाता है। फिर इन आंकड़ों पर मानसिक जुगाली करने वाले पैनलिस्ट बैठते हैं और उनमें से एक बताते हैं कि नीतीश बाबू को महिलाओं ने पांच प्रतिशत वोट ज्यादा दिया है । इसे विपक्ष के पांच प्रतिशत में घटकर देखें तो यह दस प्रतिशत हो जाता है और चुनावी परिणाम बदलने के लिए यह वोट प्रतिशत अच्छा खासा है। पहले का तर्क सुनकर दूसरा पैनलिस्ट अपना तर्क देता है कि मैं आपकी बात से सहमत हूँ लेकिन इसको आप इस नजरिए से देखिए कि कुल मतदाताओं का पचास प्रतिशत महिलाएं हैं और उस पचास प्रतिशत का पांच प्रतिशत ढाई प्रतिशत ही होता है, जो चुनावी परिणाम को बहुत हद तक प्रभावित करने में सक्षम नहीं है।
कहने का मतलब केवल इतना कि इस तरह की मानसिक जुगाली का दौर टीवी और सोशल मीडिया दोनों जगह चल रहा है। आखिरकार इन सभी को अपनी अपनी टीआरपी भी बढ़ानी है। असली कमाई का जरिया तो यही है। इसी को देखकर शेयर मार्केट भी ऊपर नीचे होता है। इसका उदाहरण भी हम बीते चुनावों में बहुत नजदीक से देख चुके हैं। लब्बोलुआब इतना कि अंतिम परिणाम का इंतजार करिए । उन्हीं अंतिम चुनावी परिणामों से सरकार का गठन होगा। जनता ने किस सर को ताज के काबिल माना और किसके सुपुर्द विपक्ष की बेंच कर दी है। यह 14 नवम्बर की शाम तक सब के सामने होगा।
शैलेश तिवारी,
संपादक
एमपी मिडिया पॉइंट



